अवचेतना

 

       (माताजी ने 'क' को लिखा था कि 'ख' के प्रति उसकी घृणा 'ख' के प्रति उसके प्रबल आकर्षण के कारण है । जब उसके बारे में पूछा गया तो उन्होंने लिखा ..)

 

स्पष्ट है कि मैं किसी अवचेतन की गति के सन्दर्भ में कह रही थी- लेकिन तुम्हें उसके बारे में चिन्ता करने या उस पर ध्यान केन्द्रित करने की जरूरत नहीं--एक दिन सहज रूप से समझ आ जायेगी ।

 

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     ये सफाइयां हैं, ऐसे बहाने हैं जिन्हें ऐसी परिस्थितियों में मन हमेशा ढूंढ़ लेता है । लेकिन ये मानसिक सफाइयां गतिविधियों के पीछे आतीं या अधिक-से-अधिक उनके साथ चलती हैं, वे कभी उनसे पहले नहीं आतीं ।

 

    जो चीज गति आरम्भ करती है वह अपने अन्धकारमय आवेग, सहनवृत्तिमूलक, लगभग यन्त्रचालित और अपने मूल में अचेतन होती है । कोई ऐसी चीज जो विरोध तो करती है लेकिन यह नहीं जानती कि क्यों ।

 

     (यह यही अचेतना है जो "क'' को पीछे धकेलती है । हालांकि, यह पीछे धकेलना या पीछे हटना न्यायोचित नहीं है--ये अपने- आपमें अचेतना की क्रियाएं हैं ।)

अप्रैल, १९३२

 

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       क्या अवचेतना ने 'उच्च' परम चेतना को कर लिया है ?

 

अगर अवचेतना परम चेतना को स्वीकार कर ले तो फिर वह अवचेतना ही न रह जायेगी, वह चेतना बन जायेगी । मेरा ख्याल है कि तुम्हारा मतलब है : क्या अवचेतना ने 'उच्च' परम चेतना के शासन के प्रति, उसके विधान के प्रति समर्पण कर दिया है ? यह पूरी तरह से नहीं हुआ है, क्योंकि अवचेतना विशाल और जटिल है; एक मानसिक अवचेतना

 

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होती है, एक प्राणिक अवचेतना होती है, एक भौतिक अवचेतना होती है और एक शारीरिक अवचेतना होती है । हमें अवचेतना को उसके अज्ञानी और जड़ प्रतिरोध से थोड़ा-थोड़ा करके बाहर निकालना होगा ।

१ जुलाई, १९३५

 

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      इन छोटी-मोटी भौतिक असुविधाओं को भी प्रगति को तेज करने के काम में लाया जा सकता है । इन सभी प्रतिरोधों का स्थान अवचेतना में है । हमें सचेतन संकल्प के साथ उसमें प्रवेश करना चाहिये और अर्ध- सचेतन जड़- भौतक में भी भगवान् के शासन की स्थापना करनी चाहिये ।

२ फरवरी, १९३८

 

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     विरक्ति की तुम्हारी पहली वृत्ति सच्ची वृत्ति थी । तुम अब जिस कमजोरी का अनुभव कर रहे हो यह साधारणत: सामूहिक सुझावों का परिणाम है जो पुराने विचारों और अनुभवों की अवचेतन स्मृतियों के द्वारा कार्य कर रही है ।

 

       हमारी सहायता और आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं ।

(६ जनवरी, १९३९)

 

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        अवचेतना की स्मृति को उस सबसे शुद्ध होना चाहिये जो व्यर्थ है ।

 

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        अवचेतना में सत्य की शक्ति : यह तभी कार्य कर सकती है जब तुम्हारी निष्कपटता पूर्ण हो ।

 

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        क्योंकि तुम्हारी अभीप्सा सच्ची और निष्कपट है, इसलिए अवचेतना में जो कुछ 'भागवत उपलब्धि' के मार्ग में खड़ा था वह रूपान्तरित होने

 

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के लिए ऊपरी सतह पर आ गया है, तुम्हें प्रगति करने के ऐसे अवसरों पर खुश होना चाहिये ।

४ जुलाई, १९५५

 

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      क्या मनुष्य अपनी अवचेतना पर नियन्त्रण करना उसी तरह सीख सकता है जिस तरह वह अपने सचेतन विचार पर नियन्त्रण करता है ?

 

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विशेष रूप से शरीर के सोते समय मनुष्य अवचेतना के सम्पर्क में होता है । अपनी रातों के बारे में सचेतन होकर अवचेतना को वश में करना अधिक आसान हो जाता है ।

 

       संयम तभी पूर्ण हो सकता है जब कोषाणु अपने अन्दर भगवान् के प्रति सचेतन हो जायें और जब वे अपने- आपको स्वेच्छा से 'उनके' प्रभाव के प्रति खोलें । इसी कार्य के लिए वह चेतना कार्य कर रही है जो पिछले साल धरती पर उतरी थी । धीरे-धीरे शरीर की अवचेतन यान्त्रिकता का स्थान भागवत परम उपस्थिति ले रही है और जो शरीर के समस्त क्रिया- कलापों पर शासन कर रही है ।

१३ अप्रैल, १९७०

 

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       अवचेतना में काम करती हुई भागवत इच्छा : विरल क्षण जब भगवान् प्रत्यक्ष रूप से 'अपना' प्रभाव डालते हैं ।

 

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      दुर्घटनाओं के बारे में :  क्या हम कह सकते है कि अचेतन और असामञ्जस्यपूर्ण  स्पन्दन दुर्घटनाओं को आकर्षित करते है और यह भी कि गलती कभी एकतरफा नहीं होती ?  इसलिये ज्यादा अच्छा कि किसी दर्घटना के बाद कुछ समय के गाड़ी चलाना

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      बन्द कर दिया जाये जब तक कि ''आत्मसंयम और चतेना में बहुत प्रगति न कर ली जाये ।''

 

ऐसा करना चाहिये और अपनी अवचेतना को आलोकित करने के लिए यह अनिवार्य होता है ।

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